In the Wake of Doklam: India-China Relations Entering a New Phase

Jabin T. Jacob, PhD, Fellow, Institute of Chinese Studies

This article was originally published as,‘भारत-चीन संबंध नये दौर में, in Rashtriya Sahara, 29 July 2017. The original English version follows below the Hindi text.

भारत के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल बीजिंग में ब्रिक्स देशों के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकारों की बैठक में शिरकत करने चीन पहुंच चुके हैं। सभी निगाहें इस तरफ हैं कि क्या भारत और चीन इस मौके पर भूटान के डोकलाम क्षेत्र में बने तनाव को समाप्त करने में सफल होंगे। लेकिन दोनों देशों के आधिकारिक बयानों पर गौर करें तो लगता है कि चीन किसी सूरत पीछे हटने को तैयार नहीं है। न केवल इतना बल्कि वह भारत के खिलाफ तीखे बयान भी दे रहा है। मांग कर रहा है कि उसके क्षेत्र, जिसे वह अपना होने का दावा कर रहा है, से भारत अपने सैनिकों को पीछे हटाए।

लेकिन इस मामले से जुड़े तय बेहद सरल-सादा हैं।

भूटान और भारत के साथ अपनी अनेक संधियों और समझौतों का चीन या तो उल्लंघन कर चुका है, या उसने चुन-चुन कर संधियों और समझौतों का उल्लंघन किया है। उदाहरण के लिए उसने भूटान के साथ 1988 और 1998 में हुई संधियों का न केवल उल्लंघन किया है, बल्कि सीमा विवाद को लेकर 2005 में हुए समझौते तथा 2012 में भारत के साथ हुए लिखित समझौते को भी काफी हद तक अनदेखा किया है। उसके ऐसा करते में भारत के सुरक्षा हितों के लिए स्पष्ट खतरा पैदा हो गया है।

इस बीच, एक व्याख्या सामने आ रही है कि चीन के अधिकारी और उसका अंग्रेजी प्रकाशन ‘‘ग्लोबल टाइम्स’ इसलिए ज्यादा मुखर हुए जा रहे हैं कि इस बार एक तीसरे देश में अपने नापाक मंसूबे को परवान चढ़ाते चीन पकड़ा गया है। भारत की औचक कार्रवाई से ठगा-सा रह गया है। अपनी कारगुजारी छिपाने के लिए चीन के अधिकारी और ‘‘ग्लोबल टाइम्स’ ने कानफोड़ू और तीखे अंदाज में मुहिम-सी छेड़ दी है। भूटान में एक और विवादित क्षेत्र है। भूटान के उत्तरी इलाके में स्थित इस क्षेत्रमें वर्षो से चीन के लोग डोलते-फिरते रहे हैं। हालांकि इस इलाके में भारत की एक सैन्य प्रशिक्षण टुकड़ी तैनात है, लेकिन इसके बावजूद भारतीय सैनिकों ने चीन और भूटान के बीच यहां के विवाद में कभी हस्तक्षेप नहीं किया। संभवत: चीन मान बैठा था कि इस बार भी भारतीय चीन-भूटान विवाद में हस्तक्षेप नहीं करेंगे। उनने सोचा कि वे बनिस्बत कमजोर भूटान को दबा देंगे।

चीनी मुखरता की वजह

चीन की बेतरह मुखरता से यही लगता है कि जैसे जताना चाहता है कि भारत को अपने सैनिक हटाने को लेकर कोई संदेह कतई नहीं पालना चाहिए। या यह मुखरता इसलिए है कि भारत ने उसके कहे अनुसार नहीं किया तो ‘‘चीन के क्षेत्र’ से भारत को बाहर करने के लिए वह कुछ भी उठा न रखेगा। यहां तक कि सैन्य कार्रवाई करना अपरिहार्य हुआ तो उससे भी गुरेज नहीं करेगा। चीन में भी लोगों में राष्ट्रवाद कुछ-कुछ कटुता और विषैली शक्ल अख्तियार कर चुका है। इतना चीन के नेताओं को भारत-विरोधी दंभी भावनाओं का प्राय: सामना करना पड़ता है। वहां के आम जन के दिलोदिमाग में भारत कोई ज्यादा महत्त्वपूर्ण देश नहीं है, और न ही इसे जापान की भांति नकारात्मक दृष्टि से देखा जाता है, और न ही चीन के लिए वैसे खतरे के तौर पर देखा जाता है, जैसा कि अमेरिका को। इसलिए चीन के नेताओं को खासी मशक्कत करनी पड़ेगी अपने अवाम के मन में यह बात बिठाने के लिए कि भारत पर बाकी दो विरोधी देशों की तुलना में कहीं ज्यादा ध्यान देना होगा।

फिर, अगर 1962 की भांति ‘‘भारत को सबक सिखाना ही मंतव्य है’ तो रक्षा मंत्री अरुण जेटली और भारत के अन्य वरिष्ठ सैन्य कमांडर जोर देते हुए कह चुके हैं कि भारत 1962 जैसा नहीं रहा। यह भी कह चुके हैं कि भारत आज की स्थिति में चीन के खिलाफ सैन्य दृष्टि से काफी सक्षम है। फिर यह भी बड़ा देश होने और तमाम शोर-शराबा करके चीन भारत के खिलाफ किसी विवाद में अपनी पहल को नहीं खोना चाहेगा। भले ही बेहद स्थानीय स्तर का छोटा सा विवाद ही क्यों न हो। मामूली-सा युद्ध भी छिड़ गया तो चीन की सेना और उसके राजनीतिक नेतृत्व, दोनों का काफी कुछतिरोहित हो जाना है। ऐसा जोखिम तो बीजिंग कतईनहीं उठाना चाहेगा जिससे कुछ हासिल ही न होता हो। इतना ही नहीं, डोकलाम क्षेत्र में सैन्य स्थितियां भी भारत के पक्ष में हैं, और चीन के पास सीमित विकल्प हैं।

भारत की प्रतिक्रिया

डोभाल को अपने चीनी समकक्षी से भेंट के समय ये वास्तविकताएं और इनके बरअक्स भारतीय पक्ष की सीमाएं भी अपने दिमाग में रखनी होंगी ताकि चीन को अपने सैनिकों को पीछे लौटाने को तैयार सकें जिससे कि डोकलाम में तनाव समाप्त हो जाए। जैसा कि अंतरराष्ट्रीय संबंधों की स्थिति अभी है, और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत की बनिस्बत कमजोर स्थिति को देखते हुए डोभाल को भारत के सुरक्षा हितों तथा इसके आर्थिक एवं राजनीतिक हितों को साधे रखना होगा। जहां तक आर्थिक एवं राजनीतिक फायदों का सवाल है, तो भारत को मौजूदा स्थिति में चीन को चेहरा बचाने में थोड़ी मदद करनी चाहिए। खासकर आर्थिक मोर्चे पर चीन के औद्योगिक पाकरे को दरपेश नियामक और ढांचागत अड़चनों को हटा लेना चाहिए। इन औद्योगिक पाकरे के बारे में दोनों देशों के बीच शीर्ष स्तर पर एक तरह से सहमति हो चुकी है। भारत को ऐसा करते में अपने लोगों को भी समझाना होगा कि यह फैसला दोनों देशों के हित में है।

इसी के साथ चीन की हरकत के खिलाफ उठ खड़े होने का बुनियादी सिद्धांत स्पष्ट हो जाना चाहिए। इसमें भारत कोई कोताही न करे। आगे चल कर इसी से डोकलाम जैसी घटनाएं नहीं हो सकेंगी। इस संदर्भ में उन कुछेक सुझावों को मान लेना संभवत: गलती होगी जिनमें कहा जा रहा है कि भारतीय और चीनी, दोनों तरफ के सैनिक एक साथ पीछे हटें। चूंकि चीन के सैनिकों ने संकट की शुरुआत की थी, इसलिए उन्हें ही पहले पीछे हटना चाहिए। वह भी किसी भारत-चीन समझौते के आधार पर नहीं बल्कि उन समझौतों के आधार पर जो चीन ने भूटान के साथ पहले से किए हुए हैं। इसके अलावा, पुराने रिकॉर्ड को देखें तो कह सकते हैं कि भारतीय सैनिकों के लौटने के बाद चीन फिर से निर्माण गतिविधियों में जुट जाएगा। अभी नहीं तो कुछ समय बाद आने वाली गर्मियों में। डोभाल को चीन तक यह बात पहुंचा देनी चाहिए कि चीन पीछे हटता है, और भूटान भारत को बताता है कि उसे अब चीन से कोई खतरा नहीं है, या फिर से ऐसी किसी कार्रवाई का उसे अंदेशा नहीं है, तभी भारतीय सैनिक पीछे हटेंगे। इसी के साथ भारत को चीन की तरफसे नियंतण्र रेखा पर किसी भी उकसाऊ कार्रवाई के लिए भी तैयार रहना होगा जहां डोकलाम से भी कहीं ज्यादा गंभीर स्थिति है।

 

As Indian National Security Advisor, Ajit Doval lands in Beijing for the meeting of the BRICS NSAs, all interest will really be in whether India and China will manage to find a way out of their present military standoff in the Doklam area of Bhutan. Judging by their official statements however, the Chinese appear to be in no mood to compromise and determined to both bad mouth India and have it withdraw its troops from what China perceives as its territory.

The facts of the matter however, are very simple. The Chinese have violated or selectively interpreted any number of treaties and agreements with both Bhutan and India. For instance, the Chinese not only violated the 1988 and 1998 treaties with Bhutan but also elements of a 2005 Agreement on the boundary dispute and a written agreements in 2012 with the Indians and, clearly threatened Indian security interests in the process.

Meanwhile, one explanation for why the rhetoric from both Chinese official sources as well as its English-language publication, Global Times has been shrill and deafening is possibly because Beijing is trying to cover up for being caught by surprise by the Indian action in confronting them in a third country. Bhutan has other disputed territory in the north that the Chinese have been nibbling away at for years and despite the presence of an Indian military training contingent in Bhutan, Indian soldiers have never intervened in the dispute between China and Bhutan. The Chinese possibly assumed that the Indians would not respond this time either in the Sino-Bhutanese dispute and thought they could run roughshod over the weaker Bhutanese.

Chinese rhetoric has constantly suggested that India must not doubt China’s demand for Indian troop withdrawal or that it will do what it takes to have India out of ‘Chinese territory’, even suggesting ‘a military response may become inevitable’. While nationalism in China, too, has taken something of a virulent form in the public domain, there are a number of realities that China’s leaders must face as far as upping the ante against India is concerned.

For one, India is a low priority in the psyche of the common man and nor is it seen as negatively as say Japan is or as threatening China as much as the US does. China’s leaders, therefore, will have to expend a lot of time and energy to build up a sufficiently strong case why India deserves greater attention than either of these two adversaries. Next, even if the objective were to ‘teach India a lesson’ like in 1962, as Defence Minister Arun Jaitley and many senior military commanders in India have underlined, this is not the same India of 1962 and the military is more than capable of holding its own against China.

Third, as the larger nation and because of all the heavy rhetoric, China cannot afford to lose any conflict it initiates against India even if this is a very local and short conflict. Even a stalemate, could mean a severe loss of face for both China’s military and its political leadership. This is a risk Beijing will be unlikely to take; the rewards are simply not commensurate enough. Further, in the Doklam area itself, the military odds are actually in favour of India, and the Chinese have limited options.

India’s Response

Doval will have to keep these realities on the Chinese side as well as the limitations on the Indian side itself, in mind when he meets his counterpart to try and persuade China to withdraw its troops and end the standoff.

International relations being what they are and given India’s weaker place in the international order currently, Doval should seek to balance India’s security interests with its other economic and political interests. And in the latter respect, it also benefits India to give the Chinese some face-saving way out of the present situation by offering some incentives particularly on the economic front – clearing the various regulatory and infrastructure hurdles to the Chinese industrial parks that were agreed to by both nations at the highest levels is one way. For India’s domestic audience, it must be reiterated that this tradeoff is after all mutually beneficial.

At the same time, the basic principle of standing up to China’s bullying behaviour must be clear and unadulterated coming from India. In the long run only this will prevent more such incidents as Doklam. In this context, it is possibly a mistake to accept the equivalence that some solutions have suggested of Indian and Chinese troops both withdrawing from the Doklam area at the same time. Since it is the Chinese that initiated this crisis, it is they who should willingly withdraw on the basis not of any India-China agreement but on the basis of their agreements with the Bhutanese. Further, the record suggests that the Chinese will be right back to their building activities when the Indians leave, if not immediately, then in the following summer.

Doval’s job should be to convey that if the Chinese withdraw and the Bhutanese communicate their satisfaction to India that they no longer face any danger from the Chinese or a repeat of the action, it is only then that Indian troops too, can withdraw. At the same time India must brace itself for more provocative Chinese actions elsewhere along the LAC at a place where they are in a stronger situation than in Doklam and at a time their choosing.

 

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